हमारे देश मे मैकॉले के द्वारा जो विषय तय  किये गए उनमे से एक था इतिहास विषय| जिसमे मैकौले ने यह कहा के भारतवासियों को उनका सच्चा इतिहास नहीं बताना है क्योंकि उनको गुलाम बनाके रखना है, इसलिए इतिहास को विकृत करके भारत मे पड़ाया जाना चाहिए| तो भारत के इतिहास पूरी तरह से उन्होंने विकृत कर दिया|

सबसे बड़ी विकृति जो हमारे इतिहास मे अंग्रेजो ने डाली जो आजतक ज़हर बन कर हमारे खून मे घूम रही है, वो विकृति यह है के “ हम भारतवासी आर्य कहीं बहार से आयें|” सारी दुनिया मे शोध हो जुका है के आर्य नाम की कोई जाती भारत को छोड़ कर दुनिया मे कहीं नही थी; तो बाहार से कहाँ से आ गए हम ? फिर हम को कहा गया के हम सेंट्रल एशिया से आये मने मध्य एशिया से आये| मध्य एशिया मे जो जातियां इस समय निवास करती है उन सभि जातियों के DNA लिए गए, DNA आप समझते है जिसका परिक्षण करके कोई भी आनुवांशिक सुचना ली जा सकती है| तो दक्षिण एशिया मे मध्य एशिया मे और पूर्व एशिया मे तीनो स्थानों पर रेहने वाली जातिओं के नागरिकों के रक्त इकठ्ठे करके उनका DNA परिक्षण किया गया और भारतवासियो का DNA परिक्षण किया गया| तो पता चला भारतवासियो का DNA दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पूर्व एशिया के किसी भी जाती समूह से नही मिलता है तो यह कैसे कहा जा सकता है की भारतवासी मध्य एशिया से आये, आर्य मध्य एशिया से आये ?

इसका उल्टा तो मिलता है की भारतवासी मध्य एशिया मे गए, भारत से निकल कर दक्षिण एशिया मे गए, पूर्व एशिया मे गए और दुनियाभर की सभि स्थानों पर गए और भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और भारतीय धर्म का उन्होंने पूरी ताकत से प्रचार प्रसार किया| तो भारतवासी दूसरी जगह पे जाके प्रचार प्रसार करते है इसका तो प्रमाण है लेकिन भारत मे कोई बाहार से आर्य नाम की जाती आई इसके प्रमाण अभीतक मिले नही और इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी नही हुई| इतना बड़ा झूट अंग्रेज हमारे इतिहास मे लिख गए, और भला हो हमारे इतिहासकारों का उस झूट को अंग्रेजों के जाने के 65 साल बाद भी हमें पड़ा रहे है|
Picture
अभी थोड़े दिन पहले दुनिया के जेनेटिक विशेषज्ञ जो DNA RNA आदि की जांच करनेवाले विशेशाज्ञं है इनकी एक भरी परिषद् हुई थी और वो परिषद् का जो अंतिम निर्णय है वो यह कहता है के “ आर्य भारत मे कहीं बहार से नही आये थे, आर्य सब भारतवासी हि थे जरुरत और समय आने पर वो भारत से बहार गए थे|”

अब आर्य हमारे यहाँ कहा जाता है श्रेष्ठ व्यक्ति को, जो भी श्रेष्ठ है वो आर्य है, कोई ऐसा जाती समूह हमारे यहाँ आर्य नही है| हमारे यहाँ तो जो भी जातिओं मे श्रेष्ठ व्यक्ति है वो सब आर्य माने जाते है, वो कोई भी जाती के हो सकते है, ब्राह्मण हो सकते है, क्षत्रिय हो सकते है, शुद्र हो सकते है, वैश्य हो सकते है| किसी भी वर्ण को कोई भी आदमी अगर वो श्रेष्ठ आचरण करता है हमारे उहाँ उसको आर्य कहा जाता है, आर्य कोई जाती समूह नही है, वो सभि जाती समूह मे से श्रेष्ठ लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति है| ऊँचा चरित्र जिसका है, आचरण जिसका दूसरों के लिए उदाहरण के योग्य है, जिसका किया हुआ, बोला हुआ दुसरो के लिए अनुकरणीय है वो सभि आर्य है|
हमारे देश मे परम श्रेधेय और परम पूज्यनीय स्वामी दयानन्द जैसे लोग, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोसे, उधम सिंह, चंद्रशेखर, अस्फाकउल्ला खान, तांतिया टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, कितुर चिन्नम्मा यह जितने भी नाम आप लेंगे यह सभि आर्य है, यह सभि श्रेष्ठ है क्योंकि इन्होने अपने चरित्र से दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किये हैं| इसलिए आर्य कोई हमारे यहाँ जाती नहीं है| रजा जो उच्च चरित्र का है उसको आर्य नरेश बोला गया, नागरिक जो उच्च चरित्र के थे उनको आर्य नागरिक बोला गया, भगवान श्री राम को आर्य नरेश कहा जाता था, श्री कृष्ण को आर्य पुत्र कहा गया, अर्जुन को कई बार आर्यपुत्र का संबोधन दिया गया, युथिष्ठिर, नकुल, सहदेव को कई बार आर्यपुत्र का सम्बोधन दिया गया, या द्रौपदी को कई जगह आर्यपुत्री का सम्बोधन है| तो हमारे यहाँ तो आर्य कोई जाती समूह है हि नही, यह तो सभि जातियों मे श्रेष्ठ आचरण धारण करने वाले लोग, धर्म को धारण करने वाले लोग आर्य कहलाये है| तो अंग्रेजों ने यह गलत हमारे इतिहास मे डाल दिया|

आपने पूरी पोस्ट पड़ी इसलिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
वन्देंमातरंम्
भारत माता कि जय


साभार - कुनाल आर्य , आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति
 
पूर्णतः दोषी आप नहीं है, संपन्नता एवं उन्नति रूपी प्रकाश हेतु हम पूर्व की ओर ताकते है किंतु सूर्य हमारी पीठ की ओर से निकलता है। देशकाल की दृष्टि से कहूँ तो मात्र १९०-२४० वर्ष पूर्व का भारत, दूसरे शब्दों में, मनुष्य की औसत आयु ६० वर्ष भी मान ले तो मात्र ३-४ पीढ़ी पूर्व। दो सौ से भी अधिक विद्वान इतिहासकारों ने, शोधकर्ताओं ने जब "सोने की चिड़िया" (वर्तमान भारतियों में भारत के इतिहास के नाम पर शेष) पर शोध कर जो शोधपत्र, पुस्तके आदि लिखी उसके कुछ अंश आपसे साझा कर रहा हूँ।

जिनमें से एक थे, थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जो १८३४ में आये एवं १८५१ लगभग १७ वर्ष तक भारत में रहे। जिस कुव्यवस्था के कारण हमे अपने ही देश का अतीत आपको विदेशी विद्वानों के प्रमाणों आदि से बताना पड़ रहा है, उसमें इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन्हें अभी विराम देते है, लोगो में धारणा बनी रहती है की अंग्रेजो के पहले का भारत मात्र कृषि प्रधान देश था जो की पूर्णतः असत्य है। अंग्रेजी इतिहासकार विलियम डिग्वी जिनके बारे में प्रचलित है की वे बिना किसी प्रमाण के कुछ बोलते नहीं, लिखते नहीं उन्होंने १७ वी शताब्दी में भारत को "सर्वश्रेष्ठ" व्यापारिक, कृषि एवं औद्योगिक देश लिखा है। भारत की भूमि को सबसे उपजाऊ, व्यापारियों को सबसे निपुण एवं भारतीय शिल्पकारों एवं दस्तकारो द्वारा निर्मित किसी भी उत्पाद का केवल स्वर्ण के ही बदले विक्रय होने की बात लिखता है। आगे इनकी लेखनी से यह निश्चित हो जाता है की भारत निर्यात प्रधान देश था।

फ़्रांसिसी इतिहासकार फ्रांस्वा पेराड ने सन १७११ में भारत पर लिखे ग्रन्थ में सैकड़ों प्रमाण दिए है, वे लिखते है " मेरी जानकारी में भारत देश में ३६ प्रकार के ऐसे उद्योग चलते है जिनमें उत्पादित प्रत्येक वस्तु विदेशो में निर्यात होती है", "भारत के उत्पाद सबसे उत्कृष्ट एवं सबसे सस्ते होते है", "मुझे मिले प्रमाण के अनुसार है भारत का निर्यात ३००० वर्षों (अर्थात बुद्ध से ५०० वर्ष एवं महावीर जी से लगभग ६५० वर्ष पूर्व) से निर्बाधित रूप चलता आ रहा है"। स्कॉटिश इतिहासकार मार्टिन लिखते है "जब ब्रिटेन एवं इंग्लैण्ड के निवासी बर्बर एवं जंगली जानवरों की तरह जीवन जीते थे तब भारत में सर्वोच्च कोटि का वस्त्र बनता था एवं विश्व के देशों में विक्रय होता था"। आगे लिखते है की "मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है की भारतवासियों ने विश्व को कपड़ा पहनना एवं बनाना सिखाया है" इसके साथ वह यह भी जोड़ते है की "रोमन साम्राज्य में जितने भी राजा रानी हुए है उन सभी ने भारत में ही निर्मित कपड़े पहने है, आयात किये है"|

विलियम वार्ड ने एवं फ़्रांस के टेवर्नियर ने भी भारत के वस्त्र उद्योग के बारे में बहुत से प्रमाण दिए है। सन १८१३ में अंग्रेजो की संसद में बहस के समय कई अंग्रेजी सांसदों ने कई प्रमाणों एवं सर्वेक्षणों के आधार पर विवरण दिया, सारे विश्व का लगभग ४३% उत्पादन अकेले भारत में होता है,यही बात उन्होंने १८३५ में एवं १८४० तक उद्धरण (quote) की। ऐसे ही सारे विश्व के निर्यात में भी भारत का भाग लगभग ३३% था इसे भी संसद में १८४० तक तक उद्धरण किया गया। इसी क्रम में एक अकड़ा सकल जगत की कुल आमंदनी का अंग्रेजो ने उद्धरण किया जिसमें से लगभग २७% भाग हमारा था।

जी.डब्ल्यू.लिटनेर, थोमस मुनरो, पैनडर्कास्ट्, कैम्पवेल आदि अधिकारीयों ने भी भारत की तकनीकी एवं शिक्षा व्यवस्था पर बहुत कार्य किया।

कैम्पवेल लिखते है "जिस देश का उत्पादन सबसे अधिक होता है यह तभी संभव है जब वहाँ कारखाने हो, कारखाने तभी संभव है जब तकनिकी हो, तकनीकी तभी संभव है जब विज्ञान हो एवं जब विज्ञान मूल रूप से शोध के लिए प्रस्तुत हो तब उसमें से तकनीकी का निर्माण होता है"।

शोध → विज्ञान { मूल विज्ञान (फंडामेंटल) > प्रयोगिक विज्ञान (एप्लाइड) } → तकनीकी → कारखाने → उत्पाद
अब बात आती है की भारत में विज्ञान पर इतना शोध किस प्रकार होता था, तो इसके मूल में है भारतीयों की जिज्ञासा एवं तार्किक क्षमता, जो अतिप्राचीन उत्कृष्ट शिक्षा तंत्र एवं अध्यात्मिक मूल्यों की देन है। "गुरुकुल" के बारे में बहुत से लोगों को यह भ्रम है की वहाँ केवल संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी जो की गलत है। भारत में विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं रही है जो की बहुत पुष्पित पल्लवित रही है जिसमें प्रमुख १. खगोल शास्त्र २. नक्षत्र शास्त्र ३. बर्फ़ बनाने का विज्ञान ४. धातु शास्त्र ५. रसायन शास्त्र ६. स्थापत्य शास्त्र ७. वनस्पति विज्ञान ८. नौका शास्त्र ९. यंत्र विज्ञान आदि इसके अतिरिक्त शौर्य (युद्ध) शिक्षा आदि कलाएँ भी प्रचुरता में रही है। संस्कृत भाषा मुख्यतः माध्यम के रूप में, उपनिषद एवं वेद छात्रों में उच्चचरित्र एवं संस्कार निर्माण हेतु पढ़ाए जाते थे।

थोमस मुनरो सन १८१३ के आसपास मद्रास प्रांत के राज्यपाल थे, उन्होंने अपने कार्य विवरण में लिखा है मद्रास प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण आंद्रप्रदेश, पूर्ण तमिलनाडु, पूर्ण केरल एवं कर्णाटक का कुछ भाग ) में ४०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। उत्तर भारत (अर्थात आज का पूर्ण पाकिस्तान, पूर्ण पंजाब, पूर्ण हरियाणा, पूर्ण जम्मू कश्मीर, पूर्ण हिमाचल प्रदेश, पूर्ण उत्तर प्रदेश, पूर्ण उत्तराखंड) के सर्वेक्षण के आधार पर जी.डब्लू.लिटनेर ने सन १८२२ में लिखा है, उत्तर भारत में २०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। माना जाता है की मैक्स मूलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक शोध किया है, वे लिखते है "भारत के बंगाल प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण बिहार, आधा उड़ीसा, पूर्ण पश्चिम बंगाल, आसाम एवं उसके ऊपर के सात प्रदेश) में ८० सहस्त्र (हज़ार) से अधिक गुरुकुल है जो की कई सहस्त्र वर्षों से निर्बाधित रूप से चल रहे है"।

उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के आकडों के कुल पर औसत निकलने से यह ज्ञात होता है की भारत में १८ वी शताब्दी तक ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल था। एक और चौकानें वाला तथ्य यह है की १८ शताब्दी में भारत की जनसंख्या लगभग २० करोड़ थी, ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल के अनुसार भारत में ७ लाख ३२ सहस्त्र गुरुकुल होने चाहिए। अब रोचक बात यह भी है की अंग्रेज प्रत्येक दस वर्ष में भारत में भारत का सर्वेक्षण करवाते थे उसे के अनुसार १८२२ के लगभग भारत में कुल गांवों की संख्या भी लगभग ७ लाख ३२ सहस्त्र थी, अर्थात प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल। १६ से १७ वर्ष भारत में प्रवास करने वाले शिक्षाशास्त्री लुडलो ने भी १८ वी शताब्दी में यहीं लिखा की "भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं जिसमें गुरुकुल नहीं एवं एक भी बालक ऐसा नहीं जो गुरुकुल जाता नहीं"।

राजा की सहायता के अपितु, समाज से पोषित इन्ही गुरुकुलों के कारण १८ शताब्दी तक भारत में साक्षरता ९७% थी, बालक के ५ वर्ष, ५ माह, ५ दिवस के होते ही उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था। प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यार्जन का क्रम १४ वर्ष तक चलता था। जब बालक सभी वर्गों के बालको के साथ निशुल्कः २० से अधिक विषयों का अध्यन कर गुरुकुल से निकलता था। तब आत्मनिर्भर, देश एवं समाज सेवा हेतु सक्षम हो जाता था।
इसके उपरांत विशेषज्ञता (पांडित्य) प्राप्त करने हेतु भारत में विभिन्न विषयों वाले जैसे शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद, धातु कर्म आदि के विश्वविद्यालय थे, नालंदा एवं तक्षशिला तो २००० वर्ष पूर्व के है परंतु मात्र १५०-१७० वर्ष पूर्व भी भारत में ५००-५२५ के लगभग विश्वविद्यालय थे। थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जिन्हें पहले हमने विराम दिया था जब सन १८३४ आये तो कई वर्षों भारत में यात्राएँ एवं सर्वेक्षण करने के उपरांत समझ गए की अंग्रेजो पहले के आक्रांताओ अर्थात यवनों, मुगलों आदि भारत के राजाओं, संपदाओं एवं धर्म का नाश करने की जो भूल की है, उससे पुण्यभूमि भारत कदापि पददलित नहीं किया जा सकेगा, अपितु संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश करे तो इन्हें पराधीन करने का हेतु सिद्ध हो सकता है। इसी कारण "इंडियन एज्यूकेशन एक्ट" बना कर समस्त गुरुकुल बंद करवाए गए। हमारे शासन एवं शिक्षा तंत्र को इसी लक्ष्य से निर्मित किया गया ताकि नकारात्मक विचार, हीनता की भावना, जो विदेशी है वह अच्छा, बिना तर्क किये रटने के बीज आदि बचपन से ही बाल मन में घर कर ले और अंग्रेजो को प्रतिव्यक्ति संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश का परिश्रम न करना पड़े।

उस पर से अंग्रेजी कदाचित शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होती तो इस कुचक्र के पहले अंकुर माता पिता ही पल्लवित होने से रोक लेते परंतु ऐसा हो न सका। हमारे निर्यात कारखाने एवं उत्पाद की कमर तोड़ने हेतु भारत में स्वदेशी वस्तुओं पर अधिकतम कर देना पड़ता था एवं अंग्रेजी वस्तुओं को कर मुक्त कर दिया गया था। कृषकों पर तो ९०% कर लगा कर फसल भी लूट लेते थे एवं "लैंड एक्विजिशन एक्ट" के माध्यम से  सहस्त्रो एकड़ भूमि भी उनसे छीन ली जाती थी, अंग्रेजो ने कृषकों के कार्यों में सहायक गौ माता एवं भैसों आदि को काटने हेतु पहली बार कलकत्ता में कसाईघर चालू कर दिया, लाज की बात है वह अभी भी चल रहा है। सत्ता हस्तांतरण के दिवस (१५-८-१९४७ ) के उपरांत तो इस कुचक्र की गोरे अंग्रेजो पर निर्भरता भी समाप्त हो गई, अब तो इसे निर्बाधित रूप से चलने देने के लिए बिना रीढ़ के काले अंग्रेज भी पर्याप्त थे, जिनमें साहस ही नहीं है भारत को उसके पूर्व स्थान पर पहुँचाने का |

"दुर्भाग्य है की भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरुषों को भूल चुके है। इसका कारण विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त है" – डॉ.कलाम, "भारत २०२० : सहस्त्राब्दी"

आप सोच रहे होंगे उस समय अमेरिका यूरोप की क्या स्थिति थी, तो सामान्य बच्चों के लिए सार्वजानिक विद्यालयों की शुरुआत सबसे पहले इंग्लैण्ड में सन १८६८ में हुई थी, उसके बाद बाकी यूरोप अमेरिका में अर्थात जब भारत में प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल था, ९७ % साक्षरता थी तब इंग्लैंड के बच्चों को पढ़ने का अवसर मिला। तो क्या पहले वहाँ विद्यालय नहीं होते थे? होते थे परंतु महलों के भीतर, वहाँ ऐसी मान्यता थी की शिक्षा केवल राजकीय व्यक्तियों को ही देनी चाहिए बाकी सब को तो सेवा करनी है।


स्रोत -- IBTL
IBTL
bharat_ka_swarnim_attit.mp3
File Size: 10370 kb
File Type: mp3
Download File

 
Picture
हमारी पूरी कोशिश है की आप जीवित और देश भक्त लोगो के माध्यम से राजीव भाई का यह संदेश हर भारतीय तक पहुचे और भारत के हर नागरिक कोशिश करे की इन गलतियो के दुष्परिणामों के प्रभाव को  नष्ट करने में मदद कर सके| आप यहाँ से राजीव भाई के आडियो संदेशो को डाउनलोड भी कर सकते है|
aetihaasik_bhoolen_1.mp3
File Size: 9433 kb
File Type: mp3
Download File

aetihaasik_bhoolen_2.mp3
File Size: 9433 kb
File Type: mp3
Download File

    लेखक

    २० जनवरी २०१० को मुझे पहली बार राजीव भाई के बारे में पता चला था| उनके बारे में जान कर और उनके द्वारा कहे गए व्याखानो को सुन कर मुझे गर्व हुआ की मैं एक भारतीय हूँ|

    यहाँ पर मैं कुछ भी नया नहीं बताने जा रहा हूँ बल्कि  राजीव भाई के आडिओ, विडियो व् उनके दस्तावेजो को ही क्रमबद्ध रूप में आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है अगर कुछ भी ऐसा लगे जो की गलत प्रस्तुत हो गया है तो मुझे जरूर बताये|

    Archives

    September 2013

    Categories

    All